Friday, September 25, 2015

मैंने कभी गाँव नहीं देखा

मैंने कभी गाँव नहीं देखा....

जब रात station पे  उतर के तांगे से अम्माँ के घर जाते होंगे
तोह शायद दूर जंगल में जुगनू दिखते होंगे

या फिर दिन में बस अड्डे से बाहर रिक्शे से जाते होंगे अम्माँ के घर
और जब रुक रुक कर रिक्शा बाज़ार से गुज़रता होगा
पापा बीच रास्ते में किसी पुराने दोस्त से मिलने उतर जाते  होंगे

अम्माँ भी हमारे लिए कुछ ख़ास बनाती होगी
मोहल्ले भर को इकट्ठा कर 'हमें ' दिखाती  होगी

मम्मी भी एक दम से बदल सी जाती होगी
सामान कमरे में रख कर, सर ढक कर
मोहल्ले भर के पैर छू कर
अम्मा का हाथ बटाती होगी

शायद चूल्हा अम्माँ का आँगन में ही होगा
वही हमें बिठा कर, हमे 'देखते' हुए खाना खिलाती होंगी। ।
और भगवान ही जाने भगवान से क्या-क्या बुदबुदाती होगी।

और नेहरू-टोपी पहने बाबा भी चौपाल से घर आ जाते होंगे
शायद हुक्का पीते-पीते खासते भी होंगे
बस दूर से हम सब को देख कर, हमारी बातों पर  मुस्कुराते होंगे !!!

मैंने कभी बाबा को नहीं देखा ……