Wednesday, January 06, 2016

कुछ बन जाते है

बहुत दिनों से इस की तलाश थी, आज जा के मिली तो सोचा इसे यहाँ दर्ज़ कर देते कही फिर से  खो न जाये.
उदय प्रकाश जी की बेहतरीन कविता। .... कुछ बन जाते है.

कुछ बन जाते है 

तुम मिसरी की डली बन जाओ
मैं दूध बन जाता हूँ
तुम मुझ में
घुल जाओ

तुम ढ़ाई साल की बच्ची बन जाओ
मैं मिसरी घुला दूध हूँ मीठा
मुझे एक सांस में पी जाओ

अब मैं मैदान हूँ
तुम्हारे सामने दूर तक फ़ैला हुआ
मुझ में दौड़ो , मैं पहाड़ हूँ
मेरे कंधो पर चढ़ो और फ़िसलों

मैं सेमल का पेड़ हूँ
मुझे ज़ोर ज़ोर से झकझोरो और
मेरी रुई को हवा की तमाम परतों में
बादलों के छोटे छोटे टुकड़ों की तरह
उड़  जाने दो

ऐसा करता हूँ की मैं अखरोट बन जाता हूँ
तुम उसे चुरा लो
और किसी कोने में छिपकर
चुप चाप उसे  तोड़ो

गेहूँ का दाना बन जाता हूँ मैं
तुम धुप बन जाओ
मिटी हवा पानी बन कर
मेरे भीतर के रिक्त कोशो में लुकछुप्पी खेलो
या कोपल हो कर मेरी किसी गाँठ से कही से भी तुरंत फूट जाओ

तुम अँधेरा बन जाओ
मैं बिल्ली बन कर दबे पाओं
चलूँगा चोरी चोरी

क्यों न ऐसा करे
मैं चीनी मिटी का प्याला बन जाता हूँ
और तुम तश्तरी
और हम कही से गिर के एक साथ टूट जाते है सुबह सुबह

या मैं गुब्बारा बनता हूँ नीले रंग का
तुम उसके भीतर की हवा बन कर फैलो
और बीच आकाश में मेरे साथ फूट  जाओ

या फिर ऐसा करते है के
हम कुछ और बन जाते है.......